मानसूनी आपदा की चुनौती

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पर्वतीय राज्यों के लिए मानसून काल आपदाओं के लिहाज से हमेशा ही एक बड़ी चुनौती रहा है। तमाम राहतों के साथ बड़ी—बड़ी चुनौतियां अपने साथ लेकर आने वाले मानसून से पहाड़ वासियों की दुश्वारियां और अधिक बढ़ जाती हैं। तथा उन्हें भारी जानमाल का नुकसान होता है। यूं तो पहाड़ का जीवन पहाड़ जैसी समस्याओं से भरा रहता है लेकिन मानसून काल में उनकी मुश्किलें कुछ ज्यादा ही गंभीर हो जाती हैं। पहाड़ पर बादल फटने और अतिवृष्टि के कारण पहाड़ों के दरकने की घटनाएं आम बात है। बीते कल अमरनाथ की गुफा के पास बादल फटने से 13 यात्रियों की मौत हो गई तथा 35 लोग लापता हो गए। मृतकों और लापता लोगों की यह संख्या इससे अधिक भी हो सकती है क्योंकि यह सिर्फ सरकारी आंकड़े हैं। उत्तराखंड में अभी मानसून को आये सिर्फ एक सप्ताह का समय हुआ है लेकिन शुरुआती दौर की बारिश ने पूरे राज्य के जनजीवन को अस्त—व्यस्त कर दिया है। राज्य की ढाई सौ से अधिक सड़कें किसी न किसी कारण से बंद हो गई हैं। कहीं पहाड़ दरकने से मलवा आया हुआ है तो कहीं अतिवृष्टि के कारण सड़कें बह गई है। अब तक एक दर्जन भर छोटे बड़े पुल या पुलिया टूट गए हैं जिसके कारण आवागमन ठप हो चुका है। राज्य की तमाम नदियां और नाले—खाले इस समय उफान पर हैं और अपने तटीय क्षेत्रों के लिए खतरा बने हुए हैं। बीते कल रामनगर में एक कार के नाले में गिर जाने से 9 लोगों (पर्यटकों) की जान चली गई। उत्तराखंड में मानसूनी मुश्किलों को इस तरह भी समझा जा सकता है कि जिस चार धाम यात्रा के लिए पर्यटकों की भारी भीड़ उमड़ रही थी वहां अब धामों में सन्नाटा पसरता जा रहा है। होटलों और पर्यटक आवासों में जहां सौ फीसदी बुकिंग थी वहां अब महज 20 फीसदी बुकिंग ही रह गई है। 80 फीसदी खाली पड़े हैं। पर्यटन की रफ्तार पर मानसून ने ब्रेक लगा दिया है। चार धाम यात्रा मार्गों पर जगह—जगह मलबा आने से मार्ग बंद हो रहे हैं। यात्रा सीजन के ठंडा पड़ने से अब व्यवसाई भी हतोत्साहित हो रहे हैं। मानसून काल में यात्रा बाधित होने के कारण सबसे अधिक प्रभाव जरूरी सामान की आपूर्ति पर पड़ता है लोगों तक जीने के लिए जरूरी सामान भी नहीं पहुंच पाता है उत्तराखंड के सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनका अपने जिला मुख्यालयों तक से संपर्क कटा हुआ है। ऐसी स्थिति में अगर क्षेत्र में कहीं बादल फटने या अन्य कोई आपदा जैसे हालात पैदा होते हैं तो पीड़ितों तक मदद पहुंचाना भी मुश्किल हो जाता है या फिर आपदा प्रबंधन कार्य में जुटी टीमों को उन तक पहुंचने में इतना अधिक समय लग जाता है कि मदद महज औपचारिकता बनकर ही रह जाती है भले ही किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए एनडीआरएफ और सेना से लेकर स्थानीय प्रशासन तक की लंबी कतारें रही हो लेकिन फिर भी आपदा प्रबंधन उतना चुस्त—दुरुस्त नहीं है जो लोगों को उनकी जान—माल की सुरक्षा की गारंटी बन सके। ऐसे आपदा प्रबंधन में जुटे लोग मलबे में सिर्फ लाशों को ही तलाशते रह जाते हैं। जो एक दुखद स्थिति है। 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका एक उदाहरण है आपदा प्रबंधन तंत्र पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है जिससे पहाड़ों को आपदा में अधिक राहत मिल सके।

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