चर्चा के केंद्र में त्रिवेंद्र?

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राजनीति में हर बात के अपने मायने होते हैं। मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारे जाने पर त्रिवेंद्र सिंह की तिलमिलाहट से सभी बखूबी वाकिफ है। उनके बाद सीएम की कुर्सी संभालने वाले तीरथ और धामी ने भले ही हाईकमान के निर्देशों पर त्रिवेंद्र सरकार के फैसले बदले हो लेकिन त्रिवेंद्र सिंह इसके बावजूद भी पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर अपने फैसलों को सही ठहराने पर अड़े रहे और जब चुनाव आया तो एक सोची—समझी रणनीति के तहत उन्होंने न सिर्फ चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया बल्कि स्वयं को चुनावी रणनीति से अलग कर लिया। भाजपा हाईकमान और सूबे के बड़े नेताओं को यह लग रहा था कि त्रिवेंद्र अपनी नाराजगी के कारण भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं इसलिए पार्टी ने उन्हें चुनाव में कोई बड़ी जिम्मेदारी भी नहीं दी। टिकट बंटवारे में भी त्रिवेंद्र के करीबी लोगों को टिकट देने से बचा गया। अभी दो दिन पूर्व कांग्रेस नेता हरीश रावत ने उनके प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उन्हें अच्छा नेता बताया और धामी को खनन प्रिय कहा गया। इसके साथ ही उनकी दुखती रग पर हाथ रखा गया कि पार्टी ने उनके समर्थित प्रत्याशियों के चुन—चुन कर टिकट काटे। हरीश रावत के इस बयान के कई मायने भी निकाले गए। लेकिन तब तक हरीश रावत ने ऐसा क्यों कहा किसी को समझ नहीं आया। लेकिन अब खुद धामी का उनके घर जाकर मुलाकात करना और इसके बाद कल प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक, मेयर गामा और काबीना मंत्री धन सिंह का उनके आवास पर जाकर मुलाकात करने के बाद यह स्पष्ट हो चुका है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत भाजपा के पावर पॉइंट बनते जा रहे हैं। धामी स्वयं को भावी सीएम मानकर चल रहे हैं वहीं मदन कौशिक की कुर्सी भी भितरघात के आरोपों के कारण हिलती दिख रही है। यही कारण है कि वह त्रिवेंद्र सिंह के घर के चक्कर काट रहे हैं। एक दूसरा कारण चुनाव बाद उत्पन्न होने वाली स्थितियों और परिस्थितियों में त्रिवेंद्र का क्या रुख रहने वाला है यह जानने की कोशिश भी भाजपा के नेताओं द्वारा की जा रही है। अपनी उपेक्षा से आहत त्रिवेंद्र सिंह रावत कहीं कोई बड़ा खेल खेल कर उन सबके लिए बड़ी मुसीबत तो नहीं खड़ी करने जा रहे हैं इस तरह की आशंकाएं भी भाजपा नेताओं के मन में चल रही है। हकीकत क्या है? इसे सिर्फ त्रिवेंद्र सिंह रावत ही जान सकते हैं। लेकिन एक बात साफ है कि पूर्व सीएम हरीश रावत का बयान व भाजपा नेताओं की त्रिवेंद्र सिंह रावत के घर की परिक्रमाओं को भी बेमतलब नहीं कहा जा सकता है। त्रिवेंद्र सिंह रावत जो अब न तो सीएम है और न मंत्री व विधायक फिर आज भाजपा नेताओं और धामी तथा मदन कौशिक के लिए वह इतने जरूरी क्यों हो गए हैं, इसका सही जवाब चुनाव परिणामों के बाद ही मिल सकेगा। लेकिन समय की घूमते चक्र ने एक बार फिर त्रिवेंद्र सिंह को चर्चाओं के केंद्र में जरूर ला दिया है।

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