पहाड़ और मैदान के बीच खिंची विभाजन की लकीर : मूल निवास व भू—कानून पर उलझी सरकार

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  • लोकसभा चुनाव पर गंभीर असर पड़ने के आसार
    – सरकार की उपलब्धियाें पर भारी भू कानून व मूल निवास मुद्दा

देहरादून। मूल निवास व भू—कानून के मुद्दों को लेकर सूबे की भाजपा सरकार इस कदर उलझ गई है कि उसे इनका कोई समुचित समाधान नजर नहीं आ रहा है। विपक्षी राजनीतिक दलों को ऐन लोकसभा चुनाव से पूर्व गरमाये इस मुद्दे ने एक बड़ा चुनावी हथियार थमा दिया है जो भाजपा की धामी सरकार की तमाम उन उपलब्धियाें पर भारी पड़ते दिखे जिनके दम पर वह फिर पांचो लोकसभा सीटे जीतने का दावा कर रही थी। खास बात यह है कि मूल निवास और भू—कानून के इन मुद्दों ने प्रदेश की आम अवाम को भी दो पालों में खड़ा कर दिया है। पहाड़ और मैदान के बीच का यह विभाजन लोकसभा चुनावों में क्या गुल खिलाएगा यह भले ही चुनावी नतीजे के बाद पता चले लेकिन चुनाव पर इसका असर अत्यंत ही गंभीर पड़ेगा इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
राज्य को एक सशक्त भू—कानून और मूल निवास कानून की सख्त जरूरत है। इस बात से भले ही पक्ष और विपक्ष दोनों ही सहमत दिख रहे हो लेकिन इन दोनों ही मुद्दों पर राज्य में जिस तरह एक जनांदोलन खड़ा होता दिख रहा है उसने विपक्ष को एक बड़ा चुनावी मुद्दा थमा दिया है वहीं सरकार के सामने आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और यूकेडी सहित तमाम अन्य क्षेत्रीय दल इस जनांदोलन के समर्थन में मैदान में कूद पड़े है। राज्य की 1 इंच भी जमीन कोई दूसरे राज्य का व्यक्ति न खरीद पाए और 1950 से पहले उत्तराखंड में रहने वाले ही राज्य के मूल निवासी माने जाएं जैसी मांगों को लेकर छिड़े इस आंदोलन को सूबे की जनता का 100 फीसदी समर्थन मिलना सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। भले ही यह मांगे कितनी भी तर्कसंगत हो या कानून सम्मत हो लेकिन सरकार अगर इन्हें मानते हुए कोई कानून लाती है तो उसे मैदानी क्षेत्र व बाहर से आकर बसे लोगों के कोप का भाजन बनना ही पड़ेगा और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो पहाड़ के लोगों का विरोध झेलना पड़ेगा।
राज्य की डेमोग्राफी को सुधारने का शगुफा छोड़कर राज्य में पहाड़ के हितों की सुरक्षा का दावा करने वाली सरकार के लिए अब उसका यह दांव खुद पर ही उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है। जो लोग राज्य बनने व उससे 2—4 दशक पहले से राज्य में रह रहे हैं उन्होंने भी इस मुद्दे पर आस्तीने चढ़ा ली है क्योंकि उनकी भी संख्या बल के हिसाब से ताकत कम नहीं है 30 से 35 फीसदी मतदाता इसके दायरे में आते हैं जिन्हें कोई कानून व सरकार आसानी से बाहर निकाल कर नहीं फेक सकती है। यही कारण है कि विपक्षी दल इन मुद्दों को बड़े राजनीतिक लाभ के मुद्दे मान रहे हैं। वही सरकार के पास अब इतना समय भी नहीं है कि इन दोनों अहम मुद्दों पर कोई जल्द फैसला ले सके। सूबे की धामी सरकार द्वारा सिलक्यारा सुरंग हादसे के सफल रेस्क्यूं अभियान से लेकर नकल विरोधी कानून लाने, लैंड जिहाद व लव जिहाद के खिलाफ अभियान चलाने व धार्मिक स्थलों की आड़ में अतिक्रमणों पर बुलडोजर चलाने, महिलाओं को 30 फीसदी आरक्षण व आंदोलनकारी को 10 फीसदी क्ष्ौतिज आरक्षण देने से लेकर यूसीसी लागू करने तक जो छोटे—बड़े काम किए गए थे उन सारी सरकार की उपलब्धियां को भू कानून और मूल निवास के इन मुद्दों नें पीछे धकेल दिया है। सरकार अब हर संभव यह प्रयास कर रही है कि वह लोगों को यह भरोसा दिलाए कि इन मुद्दों को लेकर वह संवेदनशील है और जो भी फैसले लिए जाएंगे वह राज्य के हित में ही लिए जाएंगे। लेकिन सरकार के इन प्रयासों को सिर्फ मुद्दों को टालने की कोशिश ही माना जा रहा है। विपक्ष चुनाव में अब इन मुद्दों को कितना भुना पाता है? यह विपक्ष की कोशिशो पर निर्भर करता है और सरकार इन्हें कितना बेअसर कर पाती है यह सरकार की कोशिशों पर निर्भर है। लेकिन यह मुद्दे बेअसर साबित नहीं होंगे यह तय हो चुका है।

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