भले ही जम्मू कश्मीर से धारा 370 को समाप्त करने पर केंद्र सरकार अपनी खूब पीठ थपथपाती रही हो और पुलवामा के शहीदों के बदला लेने के लिए बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक को प्रचारित कर चुनावी लाभ लेने में सफल रही हो लेकिन कश्मीर की जमीनी हकीकत क्या है अब तक यहां क्या कुछ बदला है और कितना बदला है, बीते तीन दिनों में यहां हुए दो बड़े आतंकी हमले जिसमें देश के आठ वीर सपूतों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा है तथा उतने ही लोग सैनिक अस्पतालों में जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहे हैं, वह उस हकीकत को बताने के लिए काफी है जो आज का यथार्थ है। सोमवार को कठुआ में आतंकियों द्वारा सेना के वाहन पर जिस तरह से घात लगाकर हमला किया गया जिसमें पहले ग्रेनेट फेके गए और फायरिंग की गई उसमें पांच जवान शहीद हो गए और पांच घायल हो गए। यह सभी शहीद वीर भूमि उत्तराखंड के थे इसकी खबर मंगलवार को सुबह उनके पार्थिव शरीर दून आने से पहले मिली। शहादत का गर्व और सदमा क्या होता है देवभूमि के लोग इसे बेहतर तरीके से जानते हैं लेकिन इसके साथ ही सभी के जहन में एक बार फिर वही सवाल भी है कि आखिर अपने जांबाज जवानों की इस तरह वह कब तक शहादत देते रहेंगे? इस सवाल का जवाब उन्हें किसी से भी नहीं मिल पाता है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक इसे कायराना और निंदनीय घटना बता रहे हैं। प्रधानमंत्री तो पांच के बदले 25 मारने की बात कह रहे हैं। चारों ओर पाकिस्तान और आतंकवादियों को इसका करारा जवाब दिए जाने की बात कही जा रही है। इसमें ऐसा कुछ भी नया नहीं है जो पहली बार कहा या किए जाने जैसा हो इससे पहले रविवार को राजौरी में सेना की चौकी पर हमला किया गया था बीते चार दिनों में यह तीसरा हमला है और अब तक आठ जवानों की शहादत हो चुकी है। ठीक है सेना ने अपने जवाबी सर्च अभियान में भी तीन आतंकियों को ढेर कर दिया है लेकिन कठुआ के इस हमले की जिम्मेदारी लेने वाले कश्मीर टाइगर्स जो लश्कर—ए—तैयबा का ही हिस्सा है, द्वारा इसे बदला लेने की कार्यवाही बताकर अपने दुस्साहस का हीं परिचय दिया गया है। सत्ता में बैठे नेताओं को चुनावी जीत की खुमारी से बाहर आने की जरूरत है तथा कश्मीर के हालात पर गौर करने की जरूरत है। भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कश्मीर को अपना घर और कश्मीर के लोगों को अपना परिवार बताते हो लेकिन उनका दर्द समझना भी जरूरी है। अभी जम्मू कश्मीर में लोकसभा चुनाव हुए हैं भाजपा को चाहिए था कि वह इन चुनावों में अपने प्रत्याशी मैदान में उतारती लेकिन कश्मीर की फिजा बदल देने का दम्भ भरने वाली भाजपा यह साहस नहीं दिखा सकी। कहा जा रहा था कि लोकसभा चुनाव के बाद यहां विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे? ऐसे में क्या केंद्र सरकार यहां चुनाव करा पाएगी और भाजपा चुनाव में सक्रिय भागीदारी करेगी? अगर यहां सब कुछ ठीक हो चुका है तो फिर डर किस बात का है। देखते हैं कि सरकार इन हमलों का कैसे जवाब देती है।