आज महंगाई के इस दौर में आम आदमी को अपना और अपने परिवार के लिए सर छुपाने को एक घर क्या एक छत बनाना कितना मुश्किल सवाल है यह बात भले ही कोठियों और बंगलों में रहने वालों की समझ में न आए लेकिन मेहनत मजदूरी कर परिवार पालने वाले लोगों के लिए यह सबसे अधिक महत्व का विषय है। देश भर के नगरों और महानगरों में हर साल अत्यंत ही व्यापक स्तर पर अवैध बस्तियाें का बसना व अतिक्रमण के नाम पर उनको हटाए जाने का खेल बदस्तूर जारी रहता है। सवाल यह है कि यह कौन लोग है जो शहरों में आकर अवैध रूप से यूं ही बस जाते हैं कहां से आते हैं यह लोग और कौन लोग है जो इन्हें बसा देते हैं। इनके राशन कार्ड, बिजली—पानी के कनेक्शन ही नहीं और भी बहुत सारी सुविधाएं इन्हें दिला देते हैं। कौन लोग हैं जो इन्हें अवैध अतिक्रमण के नाम पर हटा देते हैं और रोते बिलखते यह लोग अपने आशियानों पर बुलडोजर चलते देख सड़कों पर अपना सामान समेटते दिखते हैं। एनजीटी के आदेश पर राजधानी दून में इन दिनों अवैध बस्तियों को हटाने का काम किया जा रहा है। भले ही आप इन्हें घर कह ले लेकिन यह एक गरीबों के सिर छिपाने के ठिकाने भर ही है। रोते बिलखते बच्चे और महिलाएं अपना सामान समेट रहे हैं और सरकारी बुलडोजर उनके रहने के ठिकानों को जमींदोज कर रहा है। उनके पास जो भी कागज है चाहे वह बिजली—पानी के बिल हो या फिर रजिस्ट्री के कागज और हाउस टैक्स की रसीद, किसी के भी कोई मायने नहीं है। बस सरकारी फरमान है कि 2016 के बाद जो भी निर्माण हुए हो वह सभी साफ किए जाने हैं। सवाल यह है कि वह चाहे एमडीडीए के अधिकारी और कर्मचारी हो या फिर नगर निगम के बीते 6—7 सालों में जब इन बस्तियों में लोगों द्वारा सरकारी या वन भूमि पर कब्जा कर किसी भी तरह के निर्माण किये जा रहे थे तो किसी ने भी उन्हें रोकने की जहमत क्यों नहीं की? क्यों उन्हें यह सब इतनी आसानी से करने दिया गया जिन अतिक्रमणों पर कार्यवाही हो रही है वह कोई एक दो नहीं 500 से अधिक है बीते समय में दून की मलिन बस्तियों को हटाने या यूं कहीं की नदियों के प्रवाह क्षेत्र में किए गए अवैध निर्माणों को हटाने के हाईकोर्ट के आदेशों के बावजूद भी राज्य सरकार द्वारा इन बस्तियों को अध्यादेश लाकर बढ़ाने का काम किया गया था। सरकार ने इन पर बुलडोजर करवाई तो नहीं होने दी लेकिन इससे आगे उनके विस्थापन के लिए जो कुछ भी करना था वह किया भी या नहीं किया गया। अब जब इस अतिक्रमण पर कार्यवाही शुरू हो गई है तो इस पर राजनीति भी शुरू होना स्वाभाविक ही है। पिछली तमाम सरकारों द्वारा इन अवैध बस्तियों के नियमितीकरण के प्रयास भी किए गए हैं भले ही वह भी एक दिखावे तक ही सीमित क्यों न रहे हो मगर सवाल यह है कि राजनीति और नेताओं की चाल के कुचक्र में फंसे यह लोग जो अपने जीवन की सारी कमाई इन कच्ची पक्की चार दीवारों को बनाने में खर्च कर चुके हैं वह अब कहां जाए कुछ लोग इन्हें बचा कर उनकी सहानुभूति का वोट पाने के लिए तो कुछ इन्हें घर चले जाने का डर दिखा कर उनका वोट बटोरने के प्रयास में लगे हैं। इस बात से किसी का कोई सरोकार नहीं है कि इन गरीबों के दर्द का आखिर इलाज क्या है।