जिस धरती पर रहकर मनुष्य ने अपने विकास का इतिहास लिखा है क्या आज वह धरती और प्रकृति का अस्तित्व इतने बड़े खतरे में पहुंच चुका है कि अगर तत्काल प्रभाव से पूरे विश्व समुदाय द्वारा प्रभावी उपाय नहीं किए गए तो मनुष्य जीवन दुश्वार हो जाएगा? जी हां सच यही है। आज पृथ्वी दिवस पर इस बात का जिक्र इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि पर्यावरण और जलवायु में आ रहे भारी परिवर्तन के कारण पूरी धरती का तापमान आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गया है और पृथ्वी आग के गोले में बदलती दिख रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं बेमौसमी बाढ़ और बारिश के कारण तबाही का मंजर है तो कहीं सूखा और भीषण गर्मी आदमी और जीव जंतुओं के जीवन पर भारी पड़ रही है। बात चाहे दुबई की हो जहां दो—चार दिन पूर्व ही एक ही दिन में एक साल से भी अधिक बारिश हुई थी या फिर चीन की की जाए जहां की सरकार ने बाढ़ और बारिश तथा चक्रवर्ती तूफान को लेकर हाई अलर्ट जारी किया है। जिसके कारण 12 करोड लोग प्रभावित हुए हैं और 20 हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया है। ऐसा नहीं है की धरती पर जो अस्तित्व की सुरक्षा का संकट आया है वह एक दिन में ही आ गया हो। 1960 के बाद ही इस ओर विशेषज्ञों का ध्यान चला गया था। जब अंग्रेजी लेखक रयेल कासिन की एक पुस्तक साइलेंट स्प्रिंग (मौन वसंत) प्रकाशित हुई थी। 22 अप्रैल 1970 में अमेरिका में पृथ्वी दिवस का आयोजन किया गया था जिसमें दो करोड़ से भी अधिक लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। लेकिन सवाल यह है कि बीते 60—65 सालों से पूरे विश्व में पृथ्वी की सुरक्षा और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर जो ढोल पीटा जा रहा है उससे कितने राष्ट्र और कितने लोग सतर्क और सजग हुए हैं। धरती पर कीटनाशक दवाओं और रासायनिक खादों का उपयोग कितना कम हुआ है। औघोगिक विकास की होड़ में शामिल देशों ने कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कितनी कमी की है। हमें इस सच को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पृथ्वी और पर्यावरण को लेकर हमारी सभी चिंताएं सिर्फ जुबा जुबानी तक ही सीमित रही है। धरातल पर ऐसे कोई प्रयास किये ही नहीं गये जो धरती और प्रकृति की सुरक्षा कर पाते। भारत जैसे देशों में हर एक महानगर के चारों ओर कचरे के पहाड़ लगे आप देख सकते हैं। प्लास्टिक का प्रयोग लगातार जारी ही नहीं है बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। बढ़ती आबादी को रहने खाने और आवागमन की जरूरतों को पूरा करने के लिए हम कुछ भी करने से नहीं हिचकते हैं चाहे जंगल और पेड़ों के कटान की बात हो या फिर विस्फोट कर पहाड़ों का सीना छलनी करने का काम हो। ऐसी स्थिति में धरती और प्रकृति जो जीवन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, ही सुरक्षित नहीं होगी तो हम किसकी सुरक्षा की बात सोच सकते हैं। आज आदमी को न हवा उसके स्वास्थ्य के अनुकूल मिल पा रही है न पानी और भोजन। अगर सब ऊपर वाले ने ही ठीक करना है तो बस थोड़ा समय और इंतजार कीजिए क्योंकि धरती और प्रकृति के पास संतुलन बनाए रखने का स्वाभाविक गुण भी है।