समिट को लेकर अति उत्साह क्यों?

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उत्तराखंड की धामी सरकार पूरे जोशों खरोश के साथ दिसंबर में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट को सफल बनाने की तैयारी में जुटी है। मुख्यमंत्री धामी और उनके अधिकारियों की टीम अपने तीन दिवसीय लंदन दौरे में 12500 के निवेश प्रस्ताव मिलने से खासे उत्साहित है। अब तक 19—20 हजार करोड़ के निवेश प्रस्तावों पर साइन होने को लेकर वह बड़ी कामयाबी मान रहे हैं उनको अब यह भरोसा हो गया है कि उन्होंने जो ढाई लाख करोड़ निवेश जुटाने का लक्ष्य रखा है उसे आसानी से हासिल किया जा सकता है। अब वह 5 अक्टूबर को सिंगापुर और ताइवान जाने वाले हैं इससे पहले 4 अक्टूबर को दिल्ली में फिर निवेशकों के साथ बैठक होने वाली है। सरकार को ऐसा लग रहा है कि बस अब इस समिट से राज्य की दिशा और दशा सब कुछ बदला जा सकेगा। लेकिन इसके बीच विपक्षी दल कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा पिछले अनुभवों को सामने रखकर बहुत सारे सवाल भी खड़े किए जा रहे हैं। पूर्व सीएम हरीश रावत ने यहां तक कह दिया है कि राज्य की जमीनों और संसाधनों की होने वाली लूटपाट से भगवान हमारे उत्तराखंड को बचा ले तो अच्छा है। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली सरकार ने 2018 में इन्वेस्टर समिट आयोजित की थी उसमें भी बड़े निवेश प्रस्तावों का दावा किया गया था लाखों करोड़ों के निवेश मिलने की जब हकीकत सामने आई थी तो वह मात्र 30 हजार करोड़ निवेश आने तक ही सीमित रह गये वह भी वर्तमान में कहां है इसका कुछ अता—पता नहीं है। जबकि सरकार ने इस समिट के आयोजन पर ही 80 करोड रुपए की रकम खर्च कर डाली थी। सीएम और अधिकारियों ने उस समय भी समिट के आयोजन को लेकर खूब सैर सपाटा किया था जो अब भी किया जा रहा है। 20 हजार करोड़ के निवेश प्रस्ताव अगर अब तक साइन हो भी गए हैं तो यह कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं है। अहम बात यह है कि क्या इस समिट के बाद तमाम निवेशक जो अब एम ओ यू साइन कर रहे हैं वह राज्य में उघोग लगाने के लिए आएंगे भी या नहीं। इसकी क्या गारंटी है? कागजी घोड़े दौड़ाने से तो कुछ हो नहीं सकता। सरकार का दावा है कि उसने अपनी तमाम औघोगिक नीतियों में बड़ा सुधार किया है और अब निवेशकों को किसी भी तरह की दिक्कतें पेश नहीं आएगी। लेकिन इसका सच इस समिट के एक—दो साल बाद ही सामने आ सकेगा सरकार के सामने इन निवेशकों को जमीन की उपलब्धता से लेकर बिजली—पानी, बेहतर परिवहन सेवा के साथ—साथ तमाम नीतिगत दिक्कतों को दूर करने की चुनौतियां होंगी। पहाड़ की विषम परिस्थितियों में जब सूबे के लोग ही पहाड़ से पलायन पर मजबूर हैं और अब तक सरकारे इसे रोकने में जब नाकाम साबित हुई है तब औघोगिक विकास की बात और पहाड़ पर उघोगों को पहुंचाना पहाड़ जैसी चुनौती ही है। सवाल एम ओ यू साइन होने का नहीं है सवाल धरातल पर उघोगों के आने व उघोगों के टिके रहने का भी है। राज्य गठन के बाद उघोगों को एक दशक से भी अधिक समय तक विशेष आर्थिक पैकेज की सुविधा मुहैया कराई गई तब तमाम उघोग यहंा आए लेकिन आर्थिक पैकेज खत्म होने के बाद चले भी गए। यह ठीक है कि सरकार को प्रयास जारी रखना चाहिए लेकिन एक समिट से कोई चमत्कार हो जाएगा जैसी गलत फहमी भी नहीं पालनी चाहिए।

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