उत्तराखंड की सरकार ने राज्य स्थापना के जयंती समारोह का आगाज जिस विधानसभा के विशेष सत्र और उसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संबोधन से करने की योजना बनाई थी उसके पीछे छिपा वह उद्देश्य उस समय असफल हो गया जब इस सत्र में विपक्ष के साथ—साथ अपने ही मंत्री और विधायकों ने सत्ता और सरकार की कलई खोलनी शुरू कर दी जिसके कारण यह विशेष सत्र पोल खोल सत्र बनकर रह गया। सीएम धामी तब तक तो संतुष्ट दिखे जब तक राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में इस प्रदेश और सरकारों की उपलब्धियों को गिनाया और कहा कि राज्य गठन के 25 सालों में राज्य में सभी क्षेत्रों में अपेक्षित विकास हुआ है और इसकी निरंतरता को बनाए रखने की जरूरत है। लेकिन जब राज्य के विधायकों और मंत्रियों की बारी आई तो उन्होंने सदन में इन 25 सालों में क्या—क्या हुआ तथा क्या हो रहा है? इस पर बोलना शुरू किया तो जनता के सामने सारा स्याह सच आने लगा। स्वाभाविक था कि इस स्थिति में इन विधानसभा सदस्यों के बीच पहाड़ी और मैदानी के मुद्दे पर तू—तू, मैं—मैं होनी ही थी। असली और नकली पहाड़ी के मुद्दे पर तकरार होते देख विधानसभा अध्यक्ष को कहना पड़ा कि हम सभी पहाड़ी हैं। सदन में उपनेता भुवन कापड़ी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब बोलना शुरू किया तो उनकी बात सुनकर सत्ता पक्ष सन्न रह गया, आरोप कम गंभीर नहीं थे। उन्होंने अधिकारियों पर खुला आरोप लगाया कि विधायक निधि तक से अधिकारी 15 फीसदी कमीशन लेते हैं। उन्होंने सदन में मौजूद सीएम धामी से यहां तक कह डाला कि अच्छा हो कि वह 15 फीसदी कमिशन काटने के बाद विधायक को निधि जारी करने की व्यवस्था कर दें। कापड़ी यहीं नहीं रुके उन्होंने राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार और व्यवस्थाओं पर तीखा वार करते हुए कहा कि राज्य गठन का असल फायदा तो नेताओं, अधिकारियों नकल तथा असल माफियाओं को ही हुआ है, पहाड़ के लोगों को क्या मिला है। उन्हें तो आज भी अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए आंदोलन करने पर विवश हैं तथा लाठियां खानी पड़ रही है। निसंदेह राज्य गठन के बाद प्रदेश में भ्रष्टाचार का जो बोलबाला है उसे रोकने का अगर किसी ने प्रयास भी किया तो उसे दरकिनार कर दिया गया। आज तक अगर सूबे में लोकायुक्त निष्क्रिय पड़ा है तो यह उन भ्रष्टाचारियों, अधिकारियों व नेताओं की देन है जो भ्रष्टाचार को बंद नहीं होने देना चाहते हैं या उन्हें अपने जेल जाने का डर है। विधायक विनोद चमोली ने पूछा कि राज्य में अभी तक मूल निवास पर कानून क्यों नहीं बनाया गया? जबकि देश में एक भी राज्य ऐसा नहीं है जिसका मूल निवास कानून न हो। राज्य अन्य लोगों के लिए धर्मशाला बना रहे क्या इस तरह की सोच ही इसके पीछे काम करती रही है। राज्य में उघोगों के पलायन का मुद्दा भी बहुत महत्व का है, राज्य से 30 से अधिक बड़े उघोग पलायन कर चुके हैं और हम सालों से इन्वेस्टर्स मीट आयोजित कर अपनी पीठ खुद ही थपथपाते रहे हैं। राज्य में स्थाई राजधानी के मुद्दा 25 साल बाद भी मुद्दा बना हुआ है तो यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि यह किस तरह की राजनीति है? अधिकांश विधायक और मंत्री यह तो मानते हैं कि राज्य तो अलग हो गया लेकिन राज्य के विधान और व्यवस्थाओं में कोई बदलाव नहीं आया है वह जैसी पहले थी अब उससे भी अधिक बदतर हो चुकी है। सवाल यह है कि इन्हें सुधारने की और कुछ अच्छा करके दिखाने की जिम्मेदारी जिन नेताओं और सरकारों पर थी वह अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में असफल रही है। नेताओं की सोच राज्य के विकास की न होकर सिर्फ अपने विकास तक ही सीमित रही है। आज पेपर लीक मामले की जांच सीबीआई को सौंप कर सत्ता पक्ष अपनी पीठ थपथपा रहा है लेकिन राज्य की जांच एजेंसियां भरोसे के काबिल नहीं है। सरकार पर लोगों का भरोसा नहीं रहा है इस पर कोई नहीं सोच रहा है यही उत्तराखंड राज्य की राजनीति की हकीकत है।





