पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों की भले ही कितनी भी अहमियत क्यों न हो? लेकिन राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को अपने पद और संवैधानिक मर्यादाओं तथा भाषाई शिष्टता की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। ठीक है कि सभी दल और नेता चुनाव जीतने के लिए साम—दाम—दंड—भेद सभी तरह के हथकंडे अपनाते हैं। लेकिन सार्वजनिक मंचों पर नेताओं द्वारा जिस तरह की भाषा श्ौली का प्रयोग चुनाव में किया जाता है वह किसी भी स्थिति में स्वस्थ राजनीति के लिए हितकर नहीं हो सकता है। आमतौर पर आपने लोगों से राहुल गांधी की भाषा श्ौली और खासकर पीएम मोदी के लिए जिस भाषा श्ौली का प्रयोग किया जाता रहा है उसकी चर्चाएं सुनी होंगी। उनका चौकीदार चोर है का नारा एक समय में चर्चाओं का केंद्र रह चुका है। इसका नुकसान मोदी या भाजपा से ज्यादा कांग्रेस और राहुल गांधी को ही हुआ था। पश्चिम बंगाल के चुनावों में खुद प्रधानमंत्री मोदी को और भाजपा को ममता बनर्जी को दीदी ओ दीदी के तंज और उन्हें देखकर जय श्रीराम के नारे लगाकर चिढ़ाने की कीमत अपनी हार के रूप में चुकानी पड़ी थी। चुनाव में आरोप—प्रत्यारोप स्वाभाविक जरूर है लेकिन उनका यथार्थ के धरातल पर सत्य दिखना भी जरूरी होता है। बजट भाषण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो संबोधन संसद में दिया गया उस पर सिर्फ कांग्रेस ने ही सवाल खड़े नहीं किए हैं बल्कि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने भी गंभीर सवाल उठाए हैं। मोदी के यह कहने पर कांग्रेस और आप ने कोरोना काल में मजदूरों को जबरन मुंबई और दिल्ली से पलायन कराया गया, कांग्रेस और आप दोनों ने प्रधानमंत्री पर देश के सर्वाेच्च सदन में झूठ बोलने का आरोप लगाया है। अरविंद केजरीवाल का तो यहां तक कहना है कि देश के प्रधानमंत्री को संसद में ऐसा झूठ नहीं बोलना चाहिए था। यह प्रधानमंत्री के पद की गरिमा और संसद का अपमान है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा का काम ही झूठ की राजनीति करना है। प्रधानमंत्री के लिए संसद का सदन भी सदन नहीं चुनावी सभा है। वही इस मुद्दे पर दिल्ली और उत्तर प्रदेश के सीएम आदित्यनाथ योगी व अरविंद केजरीवाल के बीच जिस तरह का ट्यूटर वार देखा गया सुनो अरविंद और सुनो योगी जैसे संबोधन और शब्दावली उनके द्वारा प्रयोग की गई वह खुद उनकी अपनी छवि खराब करने के लिए काफी है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व हो रहे इन चुनावों को देश की भावी राजनीति की दिशा और दशा तय करने वाला समझा जा रहा है। इसलिए सभी दलों के नेता बेहतर प्रदर्शन चाहते हैं लेकिन चुनावी दौर में जिस तरह की तू—तू मैं—मैं और झूठे आरोप—प्रत्यारोप के सहारे लेकर वह चुनाव जीतने की कोशिशें कर रहे हैं और जनता के मुद्दों पर मिटृी डाली जा रही है यह अत्यंत ही चिंतनीय विषय है। चुनाव में अब तक अयोध्या, काशी, मथुरा और हिंदू—मुस्लिम हो रहा था अब झूठ—फरेब और तू—तू मैं—मैं भी जुड़ गया है अभी तो मतदान शुरू भी नहीं हुआ है अंत होने तक बात कहां तक जाएगी समझ पाना मुश्किल है। अभी बात गर्मी और चर्बी की और नागनाथ व सांपनाथ की हो रही है आगे अभी क्या—क्या होता है देखते रहिए।