भाजपा की अंदरूनी रार

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राजनीति में कोई किसी का स्थाई मित्र या शत्रु नहीं होता है। सूबे की राजनीति में एक बार फिर रायपुर विधायक उमेश शर्मा काऊ के साथ हुए विवाद के बाद भाजपा के अंदर पूर्व कांग्रेसी नेताओं का जो ध्रुवीकरण होता दिख रहा है वह यही संकेत देता है कि इतिहास एक बार फिर दोहराया जा सकता है। राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत अदावत से तंग आकर 2016 में जो 9 वरिष्ठ कांग्रेसी मंत्री और विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे वह अब भाजपा में भी संतुष्ट दिखाई नहीं दे रहे हैं। रायपुर विधायक उमेश शर्मा काऊ के साथ भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच हुए तकरार से इन पूर्व कांग्रेसी नेताओं द्वारा जो एकजुटता का प्रदर्शन किया गया है और वह काऊ के समर्थन में खड़े हुए हैं उससे भाजपा हाईकमान की पेशानी पर चिंता की लकीरें दिखना स्वाभाविक है। इन नेताओं के भाजपा में आने से जो मजबूती पार्टी को मिली थी उसकी बदौलत ही वह 2017 के चुनाव में 70 में से 57 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज कर सकी थी। अब अगर चुनाव से ऐन पूर्व यह पूर्व कांग्रेसी नेता भाजपा छोड़कर फिर कांग्रेस में चले जाते हैं या पार्टी में रहकर असंतुष्टों की भूमिका निभाते हैं तो वह भाजपा के लिए हार की पटकथा लिखने में सक्षम साबित होंगे। इस सत्य को भाजपा के केंद्रीय नेता अच्छे से जान समझ रहे हैं। लेकिन उनके सामने समस्या यह है कि वह अपने उन नेताओं और कार्यकर्ताओं को कैसे समझा पाते हैं जिन्हें यह कांग्रेस से आए नेता पहले ही दिन से फूटी आंख भी नहीं भा रहे हैं। भले ही इन कांग्रेसी नेताओं को भाजपा में आए 6 साल का समय हो चुका हो और वह अपने सामंजस्य का भरपूर नाटक भी करते रहे हो लेकिन इस सच को सभी जानते हैं कि आज तक यह पूर्व कांग्रेसी नेता भाजपा में रम नहीं पाए हैं और न ही भाजपा के नेताओं को यह पूर्व कांग्रेसी नेता पचा सके हैं। हालांकि इन पूर्व कांग्रेसी नेताओं को भाजपा ने अपेक्षा से भी अधिक सत्ता में भागीदारी देने का काम किया है लेकिन सूबे के भाजपा नेता भी यही मानते हैं कि इन पूर्व कांग्रेसी नेताओं ने उनका हक हड़प लिया है। अगर यह नहीं आए होते तो पार्टी में उनका पद और कद कहीं अधिक बेहतर होता। उधर कांग्रेस से भाजपा में जाने वाले यह सभी 9 नेता क्योंकि प्रथम श्रेणी के नेता थे इसलिए भाजपा में भी इन सभी को वह सम्मान व पद मिलना या दिया जाना संभव नहीं था जो कांग्रेस में उनका था। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भले ही व्यंग में इन नेताओं को नवरत्न कहते हो लेकिन वह वाकई अगर नवरत्न न होते तो काग्रेस जो कभी इन्हें वापस लेने पर कतई तैयार नहीं थी आज बाहें पसारे उनका इंतजार नहीं कर रही होती। अब इतिहास खुद को दोहराता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा लेकिन यह मुद्दा अब भाजपा के गले में हड्डी बन कर रह गया है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसका क्या हल निकाल पाता है यह देखना भी दिलचस्प होगा।

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