इस बार आसान नहीं चुनावी डगर

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उत्तराखंड विधानसभा की 70 सीटों पर हो रहे विधानसभा चुनाव की अब तस्वीर काफी हद तक साफ हो चुकी है। इस बार चुनाव में कुल 632 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। जो अब तक हुए चार विधानसभा चुनावों की तुलना में सबसे कम है। खास बात यह है कि इस बार महिला प्रत्याशियों की संख्या में भी कमी देखी गई है, एक अन्य दिलचस्प बात यह है कि इस बार 136 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी की सक्रियता तथा भाजपा और कांग्रेस के बागियों के चुनाव मैदान में डटे रहने के कारण वर्तमान विधानसभा चुनाव अत्यंत ही रोमांचक दौर में पहुंच चुका है। इस चुनाव में भाजपा के बागियों ने अपनी ही पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव मैदान में ताल ठोक कर भाजपा के लिए गंभीर चुनौती पेश कर दी है। सूबे की 12 सीटों पर भाजपा की जीत में यह निर्दलीय एक बड़ा रोड़ा बन सकते हैं। इनमें 8—10 सीटों के चुनाव परिणाम प्रभावित करने का दमखम यह बागी प्रत्याशी रखते हैं। भाजपा भले ही अब की बार 60 पार का नारा लगा रही हो लेकिन इन बागियों की चुनौती ने उसकी 10 सीटें तो पहले ही कम कर दी हैं। 70 में से 60 सीटों पर ही वह ऐसे चुनाव लड़ रही है। ठीक वैसे ही कांग्रेस 5—7 सीटों पर बागियों की चुनौती से जूझ रही है। जिसने चुनाव के सबसे बड़े चेहरे हरीश रावत की जीत तक को संदिग्ध बना दिया है। भले ही चुनावी पंडित यह मान कर चल रहे हो कि आम आदमी पार्टी को उत्तराखंड में कुछ भी मिलने वाला नहीं है लेकिन आप के प्रत्याशियों को हर सीट पर मिलने वाले वोट दर्जनों सीटों के चुनाव परिणामों को बदल सकते हैं तो वहीं आम आदमी पार्टी दो—चार सीटें अगर जीत जाती है तो यह कोई भी आश्चर्य की बात नहीं होगी। उत्तराखंड का वर्तमान चुनाव जिन स्थितियों और परिस्थितियों में हो रहा है उसका प्रभाव भी चुनाव पर पड़ना तय है। कोविड के कारण राज्य में चुनावी रैलियों, रोड शो आदि पर जिस तरह पाबंदिया इस बार रही है वैसा पहले कभी नहीं हुआ है। चुनावी कोलाहल से दूर रहने वाली इस चुनाव में इस बार डोर टू डोर और डिजिटल चुनाव प्रचार के कारण भाजपा को इसका नुकसान सबसे अधिक हो सकता है। क्योंकि सामान्य स्थिति में होने वाले चुनाव प्रचार में कांग्रेस सहित कोई भी पार्टी उसका मुकाबला नहीं कर सकती थी। अन्य किसी दल के पास वैसे बेहतर संसाधन भी नहीं है। राज्य में 14 फरवरी को मतदान होना है चुनाव आयोग ने अभी 11 फरवरी तक बड़ी रैलियों और जनसभाओं तथा रोड शो पर रोक लगा रखी है ऐसे में अगर यह रोक और आगे भी नहीं बड़ी तब भी राजनीतिक दलों को सिर्फ एक ही दिन खुला चुनाव प्रचार करने का मौका मिल सकेगा जिस में बहुत कुछ नहीं हो सकता। इन तमाम विसंगतियों के बीच होने वाले इस चुनाव में बाजी किसके हाथ लगती है इसकी कोई भविष्यवाणी किया जाना संभव नहीं है क्योंकि इस बार मुकाबला नेक टू नेक रहने वाला है, 2017 के जैसा नहीं रह सकता है। इस चुनाव में बागियों और भीतरघातियों का भी गंभीर प्रभाव रहेगा यह तय हो चुका है।

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