नेताओं की चुनावी रासलीला

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राजनीति के सच को देखना और समझना आसान नहीं होता है जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है। लेकिन यह अटल सत्य है कि बिना आग के धुआं नहीं उठता। बीते कुछ महीनों से कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए नेताओं की कांग्रेस में वापसी की खबरें समय—समय पर तूल पकड़ती रही हैं। बीते कल डॉ. हरक सिंह के कैबिनेट से नाराज होकर चले जाने और इस्तीफे की खबर ने एक बार फिर इसे हवा दी थी। अब भले ही भाजपा के नेता पार्टी में ऑल इज वेल और सब कुछ चकाचक होने की बात कर रहे हो लेकिन सच यही है कि भाजपा में सब कुछ ठीक—ठाक नहीं चल रहा है। ठीक वैसा ही हाल विपक्षी दल कांग्रेस का भी है। कांग्रेस में जारी वर्चस्व की जंग ने कांग्रेस को हिस्सों में बांट रखा है। जब भी चुनाव आते हैं तब तब सभी दलों में इस तरह की खींचतान एक परंपरा जैसी बन गई है। 2017 के चुनाव से पूर्व कांग्रेस के लगभग दर्जनभर नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था जो कांग्रेस की हार का एक कारण बना था। अब 2022 में समय एक बार फिर खुद को दोहराने की कगार पर खड़ा दिखाई दे रहा है। यशपाल आर्य और उनके बेटे भाजपा छोड़कर कांग्रेस में वापस आ चुके हैं तथा डॉ हरक सिंह और उमेश शर्मा सहित आधा दर्जन विधायक और मंत्री गणों के कांग्रेस में वापसी की चर्चाएं जारी है। भले ही यह नेता सूरज चांद और सितारों की कसमें खा रहे हो और भाजपा में जीने मरने के दावे कर रहे हो लेकिन इन सब बातों का वर्तमान दौर की राजनीति में कोई मायने नहीं रह गए है। चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले कभी भी कुछ भी संभव है। राजनीति में अब विश्वसनीयता के लिए जब कुछ शेष बचा ही नहीं है तब फिर भला किस नेता की बात पर क्या भरोसा किया जा सकता है। हां इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सूबे के नेता अगर एक बार फिर चुनाव पूर्व 2016 को दोहराते हैं तो इसका भाजपा को बड़ा नुकसान होना तय है तथा इससे कांग्रेस की फिर सत्ता में वापसी की राह आसान हो जाएगी। इस उठापटक के पीछे राजनीति या जनहित के सरोकार कतई नहीं है भले ही नेताओं द्वारा दल बदल के फैसलों को जनहित के कार्यों से जोड़ कर दिखाने की कितनी भी कोशिशें क्यों न की जाए? लेकिन सच यही है कि सभी नेता अपने अपने निहित स्वार्थों के चलते ही इसका ताना—बाना बुन रहे हैं। बात चाहे पूर्व सीएम हरीश रावत की नाराजगी की हो या फिर डॉ. हरक सिंह के इस्तीफे की धमकी की, यह उसी प्रेशर पॉलिटिक्स के कारण है जिसमें उनके अपने हित छुपे हुए हैं। इन नेताओं की महत्वाकांशाए ही हैं जो इन राजनीतिक दलों को तो नाच नचा ही रही है इन नेताओं को भी नाचने पर विवश कर रही है। यह वही प्रेशर पॉलिटिक्स के कारण है जिसमें उनके अपने हित छुपे हुए हैं। रही बात आम जनता की किसी की भी जीत हार से उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता है इसलिए वह भी इन दलों और नेताओं के इस नाच का चुनावी दौर में भरपूर मजा ले रही है। लेकिन इस चुनावी रासलीला से वह थोड़ी हैरान जरूर है क्योंकि इसमें उसे अपने सपनों का उत्तराखंड विलुप्त होता दिख रहा है।

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