देश की जनता ने जिन प्रतिनिधियों को चुनकर संसद भेजा था वह आज देश की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं पर चर्चा करने और उनके समाधान का हल खोजने की बजाय अगर सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं तो यह राजनीति और लोकतंत्र का तमाशा बनाना नहीं है तो और क्या है? विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ही इस तमाशे के बड़े किरदार हैं जिनका तमाशा देखने वाली देश की जनता यह सोच रही है कि यह भारत की किस तरह की राजनीति है और यह नेता इस देश के लोकतंत्र को किस दिशा में ले जा रहे है। भाषाई मर्यादा और संवैधानिक परंपराओं को ताक पर रखकर हमारे जनप्रतिनिधि तमाशे में सिर्फ अपने—अपने राजनीतिक नफा नुकसान के दायरे तक ही अपनी सोच को समेट चुके हैं। संसद में अनाधिकृत घुसपैठ को लेकर जो सवाल खड़े हो रही थे उन्हें अब पीछे धकेला जा चुका है। विपक्ष इस मुद्दे पर गृहमंत्री के सदन में आने और बयान देने की मांग कर रहे थे लेकिन उनकी बात न सुनने से हंगामा शुरू हुआ यह अब तक रिकॉर्ड 146 सांसदों के निष्कासन तक पहुंच कर भी नहीं थमता दिख रहा है। संसद की सुरक्षा के सवाल से बात शुरू हुई थी वह अब उपराष्ट्रपति की नकल उतारने को लेकर उनके अपमान किए जाने से होती हुई जातिवाद तक जा पहुंची है। विपक्ष सांसदों के निष्कासन और संसद में विपक्ष की आवाज दबाने का आरोप लगाकर सड़कों पर बैठा है तो सत्ता पक्ष उपराष्ट्रपति के अपमान के मुद्दे पर जंतर मंतर पर बैठा है। भले ही पक्ष और विपक्ष के सांसद और नेता अपनी—अपनी बात और आचरण को सही ठहरा रहे हो तथा एक दूसरे पर आरोपों की बौछार कर रहे हो लेकिन राजनीति और लोकतंत्र दोनों का ही चीर हरण करने में उनके द्वारा किसी तरह की कमी नहीं छोड़ी जा रही है। तृणमूल के वह सांसद जिनके द्वारा उपराष्ट्रपति की नकल उतारने का प्रयास किया गया उनका कहना है कि वह लोकसभा के सदस्य हैं और उन्होंने उपराष्ट्रपति के खिलाफ कोई एक भी शब्द आपत्तिजनक नहीं बोला है लेकिन भाजपा ने कैसे इस मुद्दे को जातीयता से जोड़ दिया किसी की भी समझ से परे है। यह हैरान करने वाली बात ही है कि जिस संसद को मंदिर की संज्ञा दी जाती है उस संसद में जहां न कोई ऊंचा होता है न नीचा होता है तथा जिसे सर्वधर्म समभाव का प्रतीक माना जाता है वहां जातिवाद कैसे घुस गया। अगर तृणमूल के सांसद ने संसद में संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का अपमान किया है तो उनके खिलाफ संवैधानिक कार्यवाही की जानी चाहिए यह तो बात किसी की भी समझ में आती है लेकिन सत्ता पक्ष जिसके पास कार्यवाही का अधिकार है वह कार्यवाही करने के बजाय जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन करें यह किसी के भी गले नहीं उतर सकता। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे का कहना है कि विपक्ष अगर गृहमंत्री को सदन में बुलाने और बोलने की मांग कर रहा है तो यह विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है लेकिन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सदन में आकर तो कुछ कहने को तैयार नहीं है लेकिन सदन के बाहर हर जगह बयान दे रहे हैं जो सरासर संसद की अवमानना है। कहा जाता है कि राजनीति व प्रेम में कुछ भी जायज या नाजायज नहीं होता है लगता है कि अब देश के नेताओं ने भी इसी सिद्धांत को अपना लिया है। देश की राजनीति में इन दिनों जो कुछ भी हो रहा है वह कोई अप्रत्याशित नहीं है और न ही यह सब कुछ बेवजह है। हां इतना जरूर है कि प्रत्यक्ष में जिन कारणों को इस पूरे घटनाक्रम में देखा जा रहा है वह कारण इसके मूल कारण नहीं है उसके पीछे भी अनेक दूसरे कारण है जिन्हें मोटे तौर पर 2024 में होने वाले आम चुनाव के लिए जमीन तैयार करने के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन यह दुख और चिंतनीय है कि आजादी के बीते 75 सालों में देश की राजनीति और लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां देश के नेता बेफिक्र होकर इस तरह के राजनीतिक तमाशे कर सके और देश की जनता को गुमराह करने की कोशिश करें देखना यह होगा कि इस राजनीति का मुकाम क्या है और अभी यह और कितना आगे तक जाती है।