संसद की सुरक्षा में हुई सेधंमारी का मामला जितना चिंताजनक है उससे भी कहीं ज्यादा चिंतनीय बात है इसे लेकर संसद में होने वाला हंगामा और सांसदों का निलंबन। विपक्ष के सांसद अगर सरकार से कोई सवाल पूछना चाहते हैं और अगर वह गृहमंत्री के सदन में आने और इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखने की मांग कर रहे हैं तो इसमें आपत्ति क्या है? विपक्ष की बात को सत्ता क्यों सुनना नहीं चाहता है विपक्ष के सवालों का जवाब देने से सत्ता पक्ष क्यों बच रहा है। क्या निलंबन जैसी कार्रवाई कर के वह विपक्ष की आवाज को दबाने की कोशिश कर रहा है यह सवाल उठाया जाना स्वाभाविक इसलिए भी हो गया है क्योंकि सत्ता पक्ष का यह रवैया आम हो चुका है। मणिपुर हिंसा का मुद्दा इसका एक उदाहरण है। जब विपक्ष प्रधानमंत्री को सदन में आने और मणिपुर में हुए महिला अत्याचारों पर बयान देने की मांग कर रहा था जब उसकी मांग को नहीं माना गया तो हंगामा हुआ और सांसदों के खिलाफ कार्यवाही भी हुई। तब विपक्ष द्वारा यह जानते हुए भी की विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है और उनके द्वारा लाये जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव पर उनकी हार भी सुनिश्चित है। अविश्वास प्रस्ताव लाया गया क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री केे सदन में आने और अपनी बात रखने पर बाध्य करना था। लेकिन इस स्थिति को किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं समझा जा सकता है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो और उसके पास भले ही कितना भी सशक्त बहुमत हो उसे तानाशाही का अधिकार नहीं हो सकता है। संसद में सेंधमारी करने वाले युवाओं द्वारा सदन में जो नारे लगाए गए वह भी यही थे कि तानाशाही नहीं चलेगी। भाजपा के शासनकाल में आमतौर पर यह देखा जाता रहा है कि सरकार किसी भी मुद्दे पर किए जाने वाले आंदोलन को बलपूर्वक दमन करने के प्रयास करती रही है। बात चाहे किसान आंदोलन की हो या फिर जंतर मंतर पर महिला पहलवानों के शारीरिक व मानसिक शोषण को लेकर किए जाने वाले धरना प्रदर्शन की जिसमें हमने इन महिलाओं को सड़कों पर घसीटने और उनसे धक्का मुक्की की शर्मसार करने वाली तस्वीरें देखी थी। इस तरह का आचरण कतई भी शुभ नहीं नहीं कहा जा सकता है। संसद में सेंधमारी की इस घटना को अंजाम देने वालों में सभी युवक व युवती हिंदू हैं। यह गनीमत की बात है वरना अब तक इस घटना को भी आतंकी साजिश से जोड़ दिया गया होता। इन युवाओं ने इस घटना को क्यों अंजाम दिया इसके मूल में अब तक यही तथ्य सामने आए हैं कि इसके पीछे युवा शक्ति की अवहेलना और बेरोजगारी तथा सरकार द्वारा उनकी पीड़ा को न समझा जाना और उनकी बात को न सुना जाने के पीछे दबा वह आक्रोश ही है। यह बात अलग है कि पुलिस व प्रशासन इसे अन्य मुद्दों से जोड़ने की तलाश में जुटा है। हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार की गारंटी देने वाली सरकार अब अपनी बड़ी नाकामियों को छुपाने के लिए रोजगार मेले लगाकर जो कुछ हजार युवाओं को नियुक्तियों के पत्र बांट रही है और टीवी चैनलों तथा अखबारों में फोटो छपवाकर प्रचार कर रही है उसके पीछे के सच को युवा ही नहीं देश के सभी लोग जानते हैं। दिखाने और ढोल पीटने की राजनीति से भले ही कोई दल सत्ता हासिल कर ले या फिर सत्ता में बना रहे लेकिन उससे देश और समाज का कोई भला नहीं हो सकता है। इस तरह की नीतियों से सिर्फ जनाक्रोश ही बढ़ सकता है। देश के युवाओं के मन की बात को भी समझा जाना सरकार के लिए जरूरी है। देश के आम और गरीब तथा बेरोजगारों और किसानों की समस्या न तो 5 किलो मुफ्त के राशन से हल हो सकती है न बेरोजगारी भत्ता और सम्मान निधि से उनका कुछ भला होने वाला है। सत्ता में बैठे लोग जो कौशल विकास का ढोल पीट रहे हैं उन्हें गरीब, मजदूर, किसान और युवाओं के लिए ठोस कार्य योजना बनाने और उसे धरातल पर उतारने की जरूरत है जिससे फिर कोई युवा संसद में घुसपैठ की ऐसी हिमाकत न कर सके और विपक्ष सदन में इतने हंगामों पर उतारू न हो कि उन्हें सदन से निलंबित करने की नौबत आए।