टनल हादसा, बड़ा सबक

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17 दिनों से सिलक्यारा टनल में फंसे 41 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लेना एक बड़ी कामयाबी है। इसके लिए मिशन जिंदगी में जुटी सभी रेस्क्यू टीमों और सरकार द्वारा किए जाने वाले प्रयासों की जितनी सराहना की जाए कम है। लेकिन सिलक्यारा का यह टनल हादसा एक बड़ा सबक भी है। खास तौर से इसलिए भी क्योंकि यह देश में पुनर्निर्माण का नया दौर है। देश भर में चाहे पुलों के निर्माण की बात हो या फिर सुरंगों के निर्माण की, बड़ी संख्या में निर्माण का काम हो रहा है। बीते समय में कई पुलों के गिरने और सुरंगों के हादसों की खबरें सुर्खियों में रह चुकी हैं। सिलक्यारा सुरंग हादसा अपने 17 दिन लंबे चले रेस्क्यू के कारण अत्यधिक सुर्खियों में रहा। कदम—कदम पर जिस तरह की बाधाएं इस रेस्क्यू अभियान के दौरान आई उसके कारण भी यह रेस्क्यू अभियान विश्व के बड़े रेस्क्यू अभियान में बदल गया। कई मौके ऐसे भी आए जो हौसला पस्त करने वाले थे लेकिन अंदर फंसे श्रमिकों और बाहर रेस्क्यू अभियान में जुटे लोगों ने हार नहीं मानी और आखिरकार इस जीत को हासिल कर लिया गया। एक 4 इंच का पाइप जो ऑक्सीजन और फूड सप्लाई का जरिया अगर नहीं बना होता तो इन श्रमिकों का जीवन सुरक्षित बचना नामुमकिन होता, वहीं इन श्रमिकों की संगठनात्मक शक्ति भी उनका मनोबल बढ़ाने में अहम रही। अगर इन श्रमिकों की संख्या सीमित रही होती तो उनका मनोबल भी शायद इतने लंबे समय तक उनके साथ नहीं दे पाता। लेकिन कहा जाता है कि अंत भला तो सब भला। इस हादसे के जहां तक कारणों का सवाल है तो अब इस रेस्क्यू अभियान के समाप्त होने के बाद इसकी पूरी जांच के बाद ही सही तथ्य सामने आ सकेंगे। लेकिन निर्माण कार्य के दौरान कार्यदायी निर्माण कंपनी में सुरक्षा के लिए जो मानक तय हैं उन्हें अपनाया गया होता तो भले ही इस हादसे को रोका जाना संभव नहीं होता लेकिन श्रमिकों की जिंदगी जो खतरे में पड़ी वह कदाचित नहीं हुआ होता। 4.5 किलो मीटर लंबी सुरंग निर्माण कार्य में एग्जिट टनल का निर्माण न किया जाना या सुरंग में पाइप लाइन न डाला जाना एक बड़ी चूक रही है। सुरंग निर्माण से पूर्व स्थान विशेष का ज्योलोजिकल सर्व क्यों नहीं किया गया? अगर किया गया तो उसमें क्या कोई लापरवाही बरती गई? अनेक ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब तलाशा जाना चाहिए। सुरंग का 60 मीटर हिस्सा धस जाना कोई मामूली बात नहीं है अगर निर्माण कार्य में किसी तरह की गुणवत्ता का ख्याल नहीं रखा गया है तो यह सबसे बड़े दुर्भाग्य व चिंता का विषय है। उससे भी बड़ा चिन्तनीय सवाल यह है कि इस सुरंग निर्माण का जो 80 फीसदी काम लगभग पूरा हो चुका था उस निर्माण कार्य पर किसी भी संस्था द्वारा निगरानी क्यों नहीं रखी गई। कल अगर यह सुरंग इस्तेमाल में लाई जा रही होती तब अगर ऐसा कुछ हो जाता तो इसमें दबकर सैकड़ो लोगों की जान भी जा सकती थी। इसके निर्माण कार्य में जो कुछ भी खर्च हुआ इस हादसे के बाद वह सब बेकार हो चुका है। 17 दिन चले इस रेस्क्यू ऑपरेशन पर शायद इसकी निर्माण लागत से भी अधिक का खर्च आ चुका होगा। नई दिल्ली में यमुना नदी में बना लोहे का पुल सवा सौ साल से भी अधिक पुराना है लेकिन अभी भी इस पुल से रेलवे और बसों का संचालन जारी है। जो इसके निर्माण की गुणवत्ता की गारंटी देता है। जरूरत इस बात की है की भावी भविष्य में निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है तथा यह हादसा एक बड़ा सबक है।

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