आजादी के बाद देश के लोकतंत्र और उसके राजनीतिक हालात में अनेक उतार—चढ़ाव आते रहे हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों और नेताओं को गिरगिट की तरह रंग बदलते देश के लोगों ने देखा। स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल या यूं कहे कि देश में आपातकाल से पूर्व तक देश में एक दलीय शासन प्रणाली तक हर राजनीतिक दल की अपनी एक राष्ट्रीय विचारधारा हुआ करती थी लेकिन 1970 के दशक से शुरू हुई गठबंधन की राजनीति ने राष्ट्रीय विचारधारा को तिलांजलि देते हुए उनके मूल स्वरूप को ही बदल डाला। चुनाव से पूर्व और चुनाव के बाद होने वाले गठबंधनों ने देश के राजनीतिक दलों और नेताओं की आंखों पर एक ऐसी काली पटृी बांधी कि वह सत्ता के लिए सभी संवैधानिक मर्यादाएं तोड़ने पर आमादा हो गए। ऐसे हालात में दलबदल सत्ता का सबसे बड़ा हथियार बन गया। जनता भले ही किसी दल के प्रत्याशी को वोट देकर उसे सत्ता में पहुंचाना चाहती हो लेकिन जनप्रतिनिधि सत्ता के लिए किसके साथ खड़ा हो जाएगा इसे समझना भी मुश्किल हो गया है। गठबंधन की राजनीति के इस प्रथम चरण में कांग्रेस ने पहले दो दशक तक एकला चलो की नीति अपनाई जरूर लेकिन उसे गठबंधन की राजनीति और दलबदल के खेल ने कई बार पटखनी दी और उसे भी आखिरकार इस गठबंधन की राजनीति को स्वीकार करना ही पड़ा। आज भी कांग्रेस अपने पुराने राजनीतिक मूल्यों और नए राजनीतिक चलन के बीच सामंजस्य नहीं बैठा पा रही है यही कारण है कि कांग्रेस के नेता स्वयं को सत्ता से दूर पाकर उसका हाथ और साथ छोड़कर इधर—उधर अपना राजनीतिक भविष्य तलाशते फिर रहे हैं। वर्तमान दौर में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उन सभी राज्यों में कांग्रेस की स्थिति लगभग एक जैसी ही है। 2017 के गोवा चुनाव में कांग्रेस ने 17 सीटें जीती थी और वह सरकार बनाने से महज 3 सीटें पीछे थी लेकिन सत्ता में न आ पाने के चलते अब 2022 का चुनाव आते आते उसके पास सिर्फ चार विधायक बचे हैं और 13 कांग्रेस छोड़कर भाग चुके हैं। पंजाब में सरकार बना पाने के बावजूद आज कांग्रेस की स्थिति क्या है वह भी हमारे सामने हैं उत्तराखंड में भी 2016 में अपनी सरकार के खिलाफ कांग्रेस के नेताओं ने अपने सत्ता स्वार्थों के लिए अपनी पार्टी का जनाजा उठाने में कमी नहीं छोड़ी। जिसका बड़ा नुकसान पार्टी ने 2017 में उठाया। कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर इस राजनीतिक चलन के कारण बड़ा नुकसान उठा चुकी है कई राज्यों में वह सत्ता में आने के बावजूद सत्ता गंवा चुकी है और कई राज्यों में सत्ता के करीब जाकर भी उसे सत्ता से दूर होना पड़ा है। कांग्रेस पार्टी के साथ धोखाधड़ी और विश्वासघात करने वाले इन नेताओं को अब वह वापस नहीं लेना चाहती है गोवा ही नहीं उत्तराखंड के बागी विधायकों के बारे में भी अब पार्टी की सोच यही है भले ही पार्टी को कितना भी और अधिक नुकसान झेलना पड़े लेकिन अब न दागी चाहिए न बागी। पार्टी की यह सोच सही है या गलत, इसका फायदा होगा या नुकसान यह दीगर बात है लेकिन अगर कांग्रेस राजनीति के इस विकृत दौर में अपने किसी वसूलों के साथ काम करना चाहती है तो यह उसका प्रशंसनीय निर्णय जरूर कहा जा सकता है।