अपने हाल पर कांग्रेसी हैरान क्यों?

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उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस के नेता राज्य में मिली लगातार तीसरी बड़ी हार के बाद भी आत्मचिंतन और मंथन की बजाय जिस तरह से एक दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हैं उससे साफ है कि उन्हें न तो अपनी हार पर कोई शर्मिंदगी है और न पार्टी के भविष्य की कोई चिंता प्रिQक है, न कोई पछतावा। पार्टी की इस दुर्दशा की स्थिति के लिए कोई और नहीं बल्कि पार्टी के वह नेता ही जिम्मेवार है जो अपने आप को ही सब कुछ मानते हैं और अपने से बड़ा नेता किसी को नहीं समझते हैं और न मानते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का जितना खराब प्रदर्शन रहा था क्या वह खतरे का अलार्म नहीं था। राज्य की 70 विधानसभा सीटों में से 59 सीटों पर हार, सिर्फ 11 सीटों पर जीत से क्या कांग्रेसियों ने कोई सबक लेने की जरूरत समझी? अगर कोई पार्टी सत्ता में रहते हुए इतनी बुरी तरह हार जाए और खुद मुख्यमंत्री दो—दो सीटों से चुनाव लड़ कर भी न जीत पाए तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। इसके बाद 2019 के आम चुनाव में भी कांग्रेस को सभी 5 सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। हैरान करने वाली बात यह है कि इसके बावजूद भी पूर्व सीएम हरीश रावत ने स्वयं को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने और खुद को ही मुख्यमंत्री बनाए जाने की जिद नहीं छोड़ी। चुनाव से पूर्व कांग्रेस को प्रदेश अध्यक्ष बदलने की क्या जरूरत थी? अगर इस सवाल का जवाब ढूंढा जाए तो क्या यह बदलाव कांग्रेस के अंदर जारी वर्चस्व की लड़ाई का हिस्सा नहीं था? प्रीतम सिंह को हटाकर जिन गणेश गोदियाल को अध्यक्ष बनाया गया था उन्होंने 2022 के चुनाव में कौन सा तीर मार लिया। पहले 11 सीटें जीती थी इस बार 19 जीत ली। अगर हरीश और गोदियाल इतने ही चमत्कारी नेता थे तो वह क्यों चुनाव हार गए। उन्होंने अपनी हार के साथ अगर पार्टी को जिता दिया होता जैसे पुष्कर सिंह धामी ने जिता दिया तो आज कांग्रेस नेता उनके लिए भी शायद तालियां बजा रहे होते, और उनकी वैसी कुर्ता घसीटन न हो रही होती जैसी हो रही है। राजनीति को सिर्फ पैतरेंबाजी का खेल समझने वाले कांग्रेसी नेताओं को आखिर कब यह समझ आएगा कि दूसरों की लाइन को मिटाकर छोटा करने से वह खुद की लाइन को बड़ा नहीं कर सकते अगर बड़ा बनना है तो उसके लिए खुद बड़ी लाइन खींचने पड़ती है। खुद को साबित किए बिना कोई खुदा नहीं बन सकता है। आज हालात देखिए कि भाजपा के विजयी विधायकों की टोली में १४ विधायक पूर्व कांग्रेसी हैं। जो आज भी कांग्रेस का हिस्सा हो सकते थे क्या कांग्रेसियों ने कभी मंथन किया कि ऐसा क्यों हुआ? या यह नहीं होना चाहिए था? यशपाल आर्य ने भाजपा में जाकर और फिर कांग्रेस में वापस आकर भी खुद को साबित किया है वहीं प्रीतम सिंह ने कांग्रेस में रहकर अपना वजूद कायम रखा है। उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दो या नेता विपक्ष बना दो क्या फर्क पड़ता है। यही कारण है अब कांग्रेस में यह दो ही नेता बचे हैं। बाकी सभी ने खुद ही खुद का काम तमाम कर लिया है। ऐसी स्थिति में प्रदेश कांग्रेस का वजूद खतरे में पड़ना स्वाभाविक है। वर्तमान चुनाव परिणाम सिर्फ आज के वर्तमान का आईना नहीं है कांग्रेस को भविष्य की संभावनाओं का रास्ता दिखाने वाले भी हैं बशर्ते कांग्रेसी नेताओं में इसे देखने का साहस हो। कांग्रेसी हार के कारणों पर मंथन करने जा रहे हैं यह सुनकर किसी को भी हंसी आ सकती है क्योंकि अब कांग्रेस के पास इन औपचारिकताओं के सिवाय बचा ही क्या है।

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