जनप्रतिनिधि हरबंस कपूर

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भाजपा के वरिष्ठ नेता हरबंस कपूर अब हमारे बीच नहीं रहे हैं। उनके निधन की खबर से हर कोई दुखी है। कोई उन्हें राजनीति का आजाद शत्रु बता रहा है तो कोई उनके सादा जीवन उच्च विचारों की मिसाल देते हुए उन्हें सादगी और शालीनता की प्रतिमूर्ति बता रहा है उन्हें जानने पहचानने वाले हर व्यक्ति के पास उनके लिए कोई न कोई विश्लेषण है। उनके निधन पर सत्ता और विपक्ष के नेता समान रूप से दुखी और आहत दिखे। उनके अंतिम दर्शन और उनकी अंतिम यात्रा में जो जनसैलाब दिखा वह उनकी लोकप्रियता का परिचय देने के लिए काफी था। आज जब राजनीति में नैतिक मूल्यों का उस हद तक क्षरण हो चुका है कि नेता शब्द ही एक गाली के रूप में प्रति विदित होता जा रहा है ऐसे वातावरण में अगर किसी नेता को समाज द्वारा और राजनीतिक तबके द्वारा इस तरह का सम्मान मिल सके जैसा कि हरबंस कपूर के हिस्से में आया तो अद्भुत ही कहा जा सकता है। क्योंकि यह सम्मान किसी को भी तोहफे में नहीं मिलता है ऐसे सम्मान के लिए किसी भी व्यक्ति को आदर्शों और नैतिकता एवं मानवता के कुछ उदाहरण पेश करने पड़ते हैं और बहुत कुछ त्यागना पड़ता है। जीवन भर के तप और त्याग तथा कड़ी मेहनत के बाद ही इस तरह की मिसाल बन पाती है। सही मायने में अगर जनप्रतिनिधि होने का अर्थ क्या होता है? हरबंस कपूर इसकी मिशाल ही नहीं थे अपितु एक पाठशाला थे। लगातार आठ बार विधायक का चुनाव जीतने की मिसाल उन्होंने यूं ही कायम नहीं की थी। जनता के साथ उनका सीधा संवाद और आत्मिक रिश्ता ही उनकी सफलता की कुंजी था। उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री और उत्तराखंड सरकार में कैबिनेट मंत्री तथा विधानसभा अध्यक्ष जैसे बड़े पदों पर रह चुके हरबंस कपूर को 2017 में तमाम वरिष्ठता के बावजूद भी मंत्री नहीं बनाया गया तो उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया यह अजीब बात की है कि हम भारतीय लोगों को किसी की अच्छाइयां उसके जीवन काल में कम ही समझ आती हैं और मरने के बाद हम कुछ ज्यादा मुखर होते हैं। अभी विधानसभा के शीतकालीन सत्र के समय स्मृतियों को संजोए रखने के लिए ग्रुप फोटो खींची गई थी जिसमें हरबंस कपूर दूसरी पंक्ति में खड़े दिखाई दिए। बीते कल अगर उनका निधन न होता तो इस फोटो की तरफ शायद किसी का ध्यान भी नहीं जाता कि भाजपा के इस सबसे वरिष्ठ नेता की यह उपेक्षा क्यों? क्या उन्हें सबसे पहली पंक्ति में स्थान नहीं मिलना चाहिए था। लेकिन क्या किया जा सकता है वर्तमान की राजनीति का चाल और चरित्र ही कुछ ऐसा हो गया है कि मंच पर स्थान पाने के लिए नेता एक दूसरे को धक्का—मुक्की करते और कोहनिया मारकर एक दूसरे को पीछे धकेलते नजर आते हैं। ऐसे नेताओं को हरबंस कपूर से ही कुछ सीख लेनी चाहिए। आपने यह तो सुना ही होगा ट्टखुदी को कर बुलंद इतना खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है, लेकिन आज के नेताओं के पास न खुदा है न खुद्दारी, यही कारण है वह दूसरे के बड़ी लाइन को मिटा कर अपनी लाइन को बड़ा दिखाना चाहते हैं और अंत में जनप्रिय नेता हरबंस कपूर को भावपूर्ण श्रद्धांजलि ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दें।

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