उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार अब तक अपने कई फैसलों पर अपनी किरकिरी करा चुकी है। सरकार द्वारा जल्दबाजी में लाये तबादला और लोकायुक्त बिल विधानसभा समिति में लम्बित पड़े है वहीं एन एच 74 की सीबीआई जांच की संस्तुतियों के बाद केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के पत्र के खुलासे के बाद सरकार बैकफुट पर है एनएच के अधिकारियों के खिलाफ रिपोर्ट को निरस्त कराने के मामले में सरकार उलझ गयी है।
इस बीच हाईकोर्ट द्वारा बद्री केदार समिति को पुनः बहाल किये जाने के निर्णय ने सरकार पर सवालिया निशान लगा दिया है। भाजपा ने सत्ता में आते ही बद्रीनाथ, केदारनाथ समिति को भंग करने का जो अकारण कार्यवाही की गयी थी वह गलत थी, राजनीति प्रेरित थी इस पर अदालत ने भी मुहर लगा दी है। यूं तो सत्ता परिवर्तन के बाद पूर्व सरकार के निर्णयों को रद्द करने की एक परम्परा जैसी राजनीति में रही है लेकिन किसी भी सरकार को बिना सोचे समझे या फिर संवैधानिक परम्पराओं के खिलाफ काम नहीं करना चाहिए।
जब समिति का कार्यकाल दो साल शेष बचा था तो बिना किसी कारण के सरकार ने यह फैसला क्यों लिया यह तो पर्यटन और र्ध्मस्व मंत्राी सतपाल महाराज ही बेहतर समझ सकते है लेकिन अब उनके व सरकार के पास हाईकोर्ट के फैसले को मानने के अलावा कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं बचा है। सरकार के सामने 2007 का अनुसुया प्रसाद मैखुरी का उदाहरण भी था जब कुछ इसी तरह की कार्यवाही उनके खिलाफ की गयी थी और हाईकोर्ट से राहत मिलने पर सरकार को मुंह की खानी पड़ी थी लेकिन यह विडिम्बना ही है कि सत्ता में आते ही नेता सब कुछ भूल जाते है।
कोर्ट के द्वारा समिति को बहाल किये जाने से अब कांग्रेस को एक और नया मुद्दा खुद सरकार ने ही थमा दिया है वहीं वह भाजपा नेता जो इस निर्णय के खिलाफ थे वह भी सरकार व सतपाल महाराज को कोस रहे है। भाजपा सरकार भले ही कोई सफाई दे लेकिन जो गलती हुई अब उसे सुधारा तो नहीं जा सकता है।